पहाड़ों का 400 साल पुराना रंगोत्सव, खड़ी और बैठकी होली, 15 दिन मचेगा धमाल
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पहाड़ों का 400 साल पुराना रंगोत्सव, खड़ी और बैठकी होली, 15 दिन मचेगा धमाल

Uttarakhand Ki Holi: भारत में होली केवल रंगों से ही नहीं खेली जाती है, बल्कि रास, रंग, रीति-रिवाज, गीत गायन और तमाम तरह की परंपराएं है. ब्रज की होली के बाद होली को सबसे ज्यादा धूमधाम से उत्तराखंड में ही मनाया जाता है. यहां की खड़ी और बैठकी होली बेहद प्रसिद्ध और ऐतिहासिक हैं.

पहाड़ों का 400 साल पुराना रंगोत्सव, खड़ी और बैठकी होली, 15 दिन मचेगा धमाल

Uttarakhand Ki Holi: भारत में होली का रंग कई रूपों में देखने को मिलता है, लेकिन उत्तराखंड की होली की बात ही अलग है. ब्रज के बाद अगर कहीं होली को सबसे ज्यादा धूमधाम और परंपरा से मनाया जाता है, तो वह है उत्तराखंड. खासकर कुमाऊं और गढ़वाल अंचल में होली का त्योहार अनोखी सांस्कृतिक धरोहर के रूप में मनाया जाता है. यहां दो खास तरह की होली मनाई जाती है- बैठकी होली और खड़ी होली. ये सिर्फ रंगों का त्योहार नहीं बल्कि लोक संगीत, परंपरा और संस्कृति का जश्न है. आइए जानते हैं, उत्तराखंड की इन अनोखी होलियों के बारे में विस्तार से.

क्या है बैठकी होली ?
बैठकी होली को नागर होली भी कहा जाता है. यह शास्त्रीय संगीत से जुड़ी होती है और इसे घरों, मंदिरों या सामूहिक स्थलों पर बैठकर गाया जाता है. इसमें तबला, हारमोनियम और मंजीरे के सुरों के साथ होली गीतों की महफिल जमती है. यह एक तरह से लोक और शास्त्रीय संगीत का अनूठा संगम है, जिसमें हर कोई गायक और श्रोता दोनों की भूमिका निभाता है.

बैठकी होली की शुरुआत पौष माह के पहले रविवार से हो जाती है और यह फाल्गुन तक चलती रहती है. इस होली में राग-रागिनियों का विशेष महत्व होता है. इसे गाने के लिए राग काफी, झिंझोटी, श्यामकल्याण जैसे शास्त्रीय रागों का उपयोग किया जाता है. इस परंपरा का संबंध 16वीं सदी से बताया जाता है, जब कुमाऊं नरेश कल्याण चंद के शासनकाल में इसे दरबारों में गाया जाने लगा. इसके बाद इसे स्थानीय लोगों ने अपनाया और यह आम समाज का हिस्सा बन गई.

खड़ी होली: नृत्य और उल्लास का उत्सव
खड़ी होली ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा लोकप्रिय है. यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि इसमें लोग खड़े होकर समूह में गोल घेरा बनाकर होली गीत गाते हैं और नृत्य करते हैं. इसे ढोल, दमाऊं और मंजीरों की धुन पर गाया जाता है. यह होली अर्ध-शास्त्रीय परंपरा में गाई जाती है, जहां एक मुख्य गायक (होल्यार) मुखड़ा गाता है और बाकी लोग उसे दोहराते हैं.

खड़ी होली की शुरुआत बसंत पंचमी से होती है. आंवला एकादशी के दिन गांव के मुखिया के आंगन या मंदिर में चीर बंधन के साथ इसकी शुरुआत होती है. फिर यह होली गांव-गांव घूमती है, जहां हर घर में इसे गाकर आशीर्वाद दिया जाता है. पूर्णिमा के दिन सार्वजनिक स्थल पर चीर दहन के साथ इसका समापन होता है.

खड़ी और बैठकी होली का ऐतिहासिक महत्व
कहा जाता है कि 16वीं सदी में कुमाऊं नरेश कल्याण चंद के शासनकाल में होली गायन की शुरुआत हुई थी. इसके बाद चंद वंश के अन्य राजाओं ने भी इसे संरक्षण दिया. 18वीं सदी में कुमाऊं नरेश प्रद्युमन शाह ने ग्वालियर और रामपुर से संगीतज्ञों को बुलाकर इस परंपरा को और समृद्ध किया. इसी दौरान दरबारी संगीत का प्रभाव बैठकी होली पर पड़ा, और इसे शास्त्रीय रागों में गाने की परंपरा शुरू हुई.

इसके विपरीत, खड़ी होली पूरी तरह से लोकसंगीत पर आधारित है और इसे मुख्य रूप से गांवों में मनाया जाता है. यह होली गोरखा आक्रमण के समय भी जारी रही और इसे गांवों में एकजुटता और उल्लास का प्रतीक माना गया.

नेपाल में भी मिलता है असर
कुमाऊं की होली का प्रभाव नेपाल के सीमावर्ती इलाकों में भी देखा जा सकता है. सीमांत क्षेत्र में बसे गांवों में खड़ी होली का प्रचलन देखने को मिलता है. इसके अलावा, इस होली का स्वरूप ब्रज की रासलीला से भी प्रभावित है. 

महिलाओं की खास होली
उत्तराखंड में महिलाओं की होली भी बेहद खास होती है. यह आमतौर पर बैठकर गाई जाती है और इसमें ढोलक और मंजीरे के साथ पारंपरिक और फिल्मी गानों का मिश्रण होता है. यह होली बसंत पंचमी से शुरू होकर रंगों के दूसरे दिन तक चलती है. 

स्वांग और ठेठर वाली होली 
होली के उत्सव में मनोरंजन भी खूब होता है. खासकर ठेठर और स्वांग की परंपरा इसमें हास्य और व्यंग्य का रंग भरती है. यह खासतौर पर महिलाओं की बैठकी होली में ज्यादा देखने को मिलता है, जिसमें समाज की विभिन्न गतिविधियों पर व्यंग्य किया जाता है.

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