चंद्रशेखर आजाद की मुखबिरी किसने की थी? वो आखिरी 30 मिनट, जब आजाद ने खुद को 'आजाद' कर लिया
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चंद्रशेखर आजाद की मुखबिरी किसने की थी? वो आखिरी 30 मिनट, जब आजाद ने खुद को 'आजाद' कर लिया

Chandrashekhar Azad last day: चंद्रशेखर आजाद ने कसम खाई थी कि वे कभी भी अंग्रेजों की पकड़ में नहीं आएंगे. लेकिन 27 फरवरी 1931 का वो मनहूस दिन, इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में जब एक गद्दार की मुखबिरी के चलते अंग्रेजों ने उन्हें घेर लिया. आइए जानते हैं, किसने की थी उनकी मुखबिरी और उस आखिरी रोज क्या हुआ था.

चंद्रशेखर आजाद की मुखबिरी किसने की थी? वो आखिरी 30 मिनट, जब आजाद ने खुद को 'आजाद' कर लिया

27 फरवरी, 1931. इलाहाबाद का अल्फ्रेड पार्क. सुबह के करीब 10 बजे का समय था. पेड़ों की छांव में एक गठीले बदन का युवा, अपने साथी सुखदेव राज के साथ बैठा किसी अहम योजना पर बात कर रहा था. यह कोई और नहीं, बल्कि ब्रिटिश राज की आंखों का कांटा, दृढ़ निश्चयी क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद थे. उन्हें ब्रिटिश पुलिस ने पकड़ने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक रखी थी. उन पर 30,000 रुपये का इनाम भी था. जो उस समय एक बहुत बड़ी रकम थी.

  1. साथी ने की थी चंद्रशेखर आजाद की मुखबिरी
  2. आखिरी सांस तक अंग्रेजों के हाथ नहीं आए आजाद

अंग्रेजों के हाथ न आने की खाई थी कसम
चंद्रशेखर आजाद ने कसम खाई थी कि वे जीते जी कभी भी अंग्रेजों के हाथ नहीं आएंगे, और इसी कसम को निभाने के लिए उन्होंने अपना नाम 'आजाद' रखा था. लेकिन, उस दिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. पार्क के बाहर सायरन की आवाज गूंजी और ब्रिटिश पुलिस ने पार्क को चारों तरफ से घेरना शुरू कर दिया.

यह एक ऐसी घटना थी, जिसने भारत के इस महान सपूत को हमसे छीन लिया, लेकिन उनके नाम को हमेशा के लिए अमर बना दिया. अंग्रेज कभी भी यहां तक नहीं पहुंच सकते थे, अगर उस गद्दार ने आजाद की मुखबिरी न की होती. आइए आजाद की जिंदगी के आखिरी कुछ घंटों के बारे में जानते हैं.

विश्वासघात की वो सुबह, आखिर मुखबिर कौन था?
सवाल यह उठता है कि अंग्रेजों को आजाद के अल्फ्रेड पार्क में होने की जानकारी किसने दी थी? उस रोज, आजाद को घेरने वाली 40 सदस्यीय आर्म्ड फोर्स का हिस्सा रहे धर्मेंद्र गौड़ अपनी पर्सनल डायरी लिखा करते थे. बाद में, धर्मेंद्र गौड़ ने एक पुस्तक लिखी ‘आजाद की पिस्तौल और उनके गद्दार साथी’.

धर्मेंद्र गौड़ उस समय ब्रिटिश पुलिस में बतौर सहायक केंद्रीय गुप्तचर अधिकारी के तौर पर गुप्तचर यूनिट में तैनात थे और वो आजाद के साथ हुई पुलिस मुठभेड़ में अंग्रेज पुलिस का हिस्सा थे. इस पुस्तक में उन्होंने जो कुछ लिखा वो उस डायरी का हिस्सा है जिसे वो रोज लिखते थे.

इन्हीं ऐतिहासिक दस्तावेजों के मुताबिक, चंद्रशेखर आजाद की मुखबिरी किसी और ने नहीं, बल्कि उनके ही एक कथित साथी वीरभद्र तिवारी ने की थी. वीरभद्र तिवारी पहले हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) से जुड़े हुए थे, लेकिन बाद में ब्रिटिश पुलिस से हाथ मिला लिया था.

इतिहासकार क्या कहते हैं?
इसके इतर, इतिहासकार ज्ञानेंद्र पांडे अपनी किताब ‘द कंस्ट्रक्शन ऑफ कम्युनलिज्म इन नॉर्थ इंडिया’ में ब्रिटिश खुफिया दस्तावेजों का हवाला देते हुए बताते हैं कि ब्रिटिश पुलिस को क्रांतिकारियों की गतिविधियों की जानकारी अक्सर मुखबिरों से मिलती थी.

हालांकि, चंद्रशेखर आजाद के मामले में, ब्रिटिश पुलिस के रिकॉर्ड्स और जे. एन. दीक्षित जैसे लेखकों की किताबों में वीरभद्र तिवारी का नाम एक प्रमुख मुखबिर के तौर पर सामने आता है. कहा जाता है कि वीरभद्र तिवारी ने इलाहाबाद में पुलिस अधीक्षक जॉन नॉट-बॉवर को आजाद के अल्फ्रेड पार्क में होने की खबर दी थी. इसके पीछे पैसों का लालच या फिर अंग्रेजों का दबाव माना जाता है.

अल्फ्रेड पार्क और आजाद के आखिरी 30 मिनट
जैसे ही एसपी नॉट-बॉवर अपनी बड़ी पुलिस टीम के साथ पार्क पहुंचे, उन्होंने आजाद और सुखदेव राज को पहचान लिया. नॉट-बॉवर ने आजाद को ललकारा और आत्मसमर्पण करने को कहा. लेकिन आजाद तो आजाद थे. उन्होंने अपनी माउजर पिस्टल निकाली और तुरंत गोलीबारी शुरू कर दी.

आजाद ने एक पेड़ की आड़ ली और सुखदेव राज को भाग निकलने का इशारा किया. सुखदेव राज ने कुछ देर जवाबी फायरिंग की ताकि आजाद को कवर मिल सके, और फिर वहां से निकल गए. अब आजाद अकेले थे, और उनके सामने पूरी ब्रिटिश पुलिस फोर्स थी, जिसमें नॉट-बॉवर के अलावा कई हथियारबंद सिपाही और अधिकारी शामिल थे. आजाद ने अपनी बहादुरी का ऐसा प्रदर्शन किया कि पुलिस भी हैरान रह गई. उन्होंने लगातार गोलियां चलाईं, जिससे नॉट-बॉवर की कलाई और एक अन्य पुलिस अधिकारी, विश्वेश्वर सिंह की जांघ में गोली लगी.

दोनों तरफ से भीषण गोलीबारी चल रही थी. आजाद ने कई पुलिसकर्मियों को अपनी गोलियों का निशाना बनाया. इस दौरान उन्हें भी कई गोलियां लगीं, उनका शरीर लहूलुहान हो चुका था. वे जानते थे कि अब बच निकलना असंभव है, लेकिन अपनी कसम नहीं तोड़नी थी. ‘जिंदा रहते अंग्रेजों के हाथ नहीं आऊंगा.’ जब उनकी माउजर में केवल एक आखिरी गोली बची, और शरीर पूरी तरह से साथ छोड़ रहा था, तो उन्होंने अपनी माउजर को अपनी कनपटी पर रखा.

‘आजाद ही रहा हूं, आजाद ही मरूंगा’
कहा जाता है कि अपनी आखिरी गोली चलाने से ठीक पहले, चंद्रशेखर आजाद ने जोर से कहा था, ‘आजाद ही रहा हूं, आजाद ही मरूंगा’ और फिर उन्होंने उस आखिरी गोली से खुद को मार लिया.

जब पुलिस दल आगे बढ़ा, तो उन्होंने देखा कि आजाद धरती पर निढाल पड़े हैं. अंग्रेज अधिकारियों को यकीन नहीं हो रहा था कि जिस क्रांतिकारी को पकड़ने में उन्हें सालों लग गए, उसने खुद को इतनी बहादुरी से खत्म कर लिया. डर के मारे, पुलिस ने आजाद के मृत शरीर पर भी कई गोलियां चलाईं, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वे वाकई मर चुके हैं.

चंद्रशेखर आजाद का यह बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण मोड़ था. उनकी मृत्यु से क्रांतिकारी आंदोलन को गहरा धक्का लगा, लेकिन उनकी वीरता और निडरता की कहानी ने आने वाली पीढ़ियों को हमेशा प्रेरणा दी. अल्फ्रेड पार्क का नाम बाद में बदलकर चंद्रशेखर आजाद पार्क कर दिया गया, जो आज भी उस महान योद्धा के सर्वोच्च बलिदान की याद दिलाता है, जिसने अपने नाम को सार्थक किया.

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प्रशांत सिंह

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