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Islam and Kafir Light of the Quran and Hadith: गलतफहमियों और अफवाहों के इस दौर में इस्लाम को लेकर कई झूठी और मनगढ़ंत धारणाएं फैलाई जा रही हैं. खासतौर पर 'काफिर' शब्द और गैर-मुस्लिमों के प्रति इस्लाम के रवैये को लेकर. सोशल मीडिया से लेकर टीवी डिबेट्स तक में कुछ खास एजेंडे के तहत इस्लाम को हिंसक, असहिष्णु और कट्टर साबित करने की कोशिश होती रही है.
हालांकि, सच्चाई इससे बिल्कुल उलट है. इस्लाम एक दीन-ए-शफकत (दया का धर्म) है. जिसमें आलिमे इंसानियत के हर तबके के साथ इंसाफ, रहमत और अमन की सीख दी गई है. सोशल मीडिया और टीवी डिबेट्स में इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ फैलाई गई मनगढ़ंत बातों की वजह से मुस्लिम समुदाय को शक की निगाह से देखा जाता है और कभी-कभी उनके साथ मार-पीट और हिंसा की जाती है. आइये इस अवधारणा को गहनता से जांचते हैं.
दरअसल, 'काफिर' शब्द अरबी भाषा से लिया गया है, जिसका मायने होता है, "इंकार करने वाला." इस्लाम के हवाले से यह शब्द उन लोगों के लिए इस्तेमाल होता है जो स्पष्ट रूप से अल्लाह और उसके रसूल मोहम्मद (स.अ.व.) के संदेश को नकारते हैं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हर गैर-मुस्लिम को काफिर कहकर उनके खिलाफ नफरत फैलाई जाए.
कुरान में यह शब्द अलग-अलग मायनों में इस्तेमाल किया गया है और सभी आयतों को उनके समय, परिस्थिति और घटनाक्रम के मुताबिक समझना जरुरी है. मिसाल के तौर पर कुछ आयतें जंग की हालात में उतरीं जब मुसलमानों को खत्म करने के लिए हमले किए जा रहे थे. मगर इन्हीं आयतों के बाद यह भी कहा गया है कि अगर दुश्मन शांति की बात करे, तो उसे सुरक्षा दी जाए.
काफिरों के साथ बदसलूकी करना इस्लाम में सबसे बड़ा गुनाह है. इसको हम कुरान की पवित्र आयत और हदीस से समझेंगे. सबसे पहले कि क्या किसी काफिर को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए जोर जबरदस्ती की जा सकती है? जैसा कि हालिया दिनों में एक अवधारणा बना दी गई है कि सवाब (पुण्य) के लिए लालच देकर, जान से मारने की धमकी देकर और प्रेम प्रसंग के जरिये धर्मांतरण कराना जायज है.
हालांकि, इस्लाम किसी को लालच देकर, जोर जबरदस्ती या प्रेम प्रंसग जिसे लव जिहाद नाम दिया गया है, के जरिये इस्लाम अपनाने के लिए मजबूर करना जायज नहीं है. इसका जिक्र कुरान में सूरह अल-बकरा 2:256 में किया गया है, जहां कहा गया है, "धर्म में कोई जबरदस्ती नहीं है." ऐसे में जब कुरआन ने कह दिया कि आप किसी से जबरदस्ती धर्म परिवर्तन नहीं करा सकते हैं, तो फिर धार्मिक आधार पर काफिर यानी गैर-मुस्लिमों से नफरत करना गुनाह में शामिल होता है.
इस्लाम में किसी मुसलमान को किसी गैर- मुस्लिम से लड़ाई झगड़ा और हिंसा करने से सख्ती से मना किया गया है. अंततोगत्वा अगर ऐसा हालात बनते हैं, तो इसके लिए भी कुछ शर्ते हैं. कुरान में सूरह अल-मुम्तहना 60:8 में कहा गया है, "जो लोग तुमसे नहीं लड़ें और तुम्हें तुम्हारे घरों से नहीं निकालें, उनके साथ इंसाफ और हुस्न सलूक के साथ पेश आओ."
इस्लाम में रिश्तों को बहुत अहमियत दी गई है, चाहे मुसलमान का रिश्तेदार गैर-मुस्लिम ही क्यों ना हो. इसका सुबूत हदीस से स्पष्ट हो जाता है. इसका अंदाजा बुखारी मुस्लिम की एक हदीस से लगाया जा सकता है. हजरत अस्मा बिन्ते अबू बक्र (र.अ.) की वालिदा (मां) मुसलमान नहीं थीं. एक दिन हजरत अस्मा की वालिदा उनसे मिलने आईं तो उन्होंने हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से पूछा कि क्या मैं उनसे अच्छा सलूक या बर्ताव करूं? इस पर नबी (स.अ.व.) कहा,"हां, बिल्कुल अपनी वालिदा से अच्छे रिश्ते कायम रखो.”
गैर- मुस्लिमों यानी काफिरों के साथ सलूक को लेकर और हदीस बहुत मशहूर है. बुखारी शरीफ के मुताबिक, अरब के एक कबीले ने इस्लाम नहीं स्वीकार किया था. इस पर एक सहाबी ने हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से उस कबीले को बद्दुआ (श्राप) देने की अपील की. नबी (स.अ.व.) ने सहाबी से बहुत ही विनम्रता से बद्दुआ देने से इंकार करते हुए कहा कि "अल्लाह उन्हें अगर दे और अल्लाह की मर्जी होगी तभी वह इस्लाम स्वीकारेंगे."
इस्लाम में मुसलमानों की तरह गैर-मुस्लिमों को भी बराबर अधिकार दिए गए हैं. इस्लाम में चाहे वह मुस्लिम या गैर- मुस्लिम सबके साथ हुस्न सलूक और विनम्रता से पेश आने को कहा गया है. अब दाऊद की हदीस है. इस हदीस के मुताबिक, नबी (स.अ.व.) ने फरमाया, "जो गैर-मुस्लिम के पर जुल्म करेगा या उसका हक मारेगा, मैं कयामत के दिन उसके खिलाफ खुद मुकदमा करूंगा."
इसी तरह इस्लाम किसी निर्दोष की हत्या करना हराम है, चाहे वह मुस्लिम या गैर-मुस्लिम. दक्षिणपंथी संगठनों से ताल्लुक रखने वाले लोग कुरआन की कुछ आयतों को गलत तरीके से पेश करते हैं और मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाते हैं. जैसे कुरान की आयत सूरह तौबा 9:5 को बिना गलत तरीके से कोट करते हैं, "जहां पाओ, काफिरों को मार डालो."
हालांकि, असलियत से काफी अलग है. कुरान की यह आयत जंग के दौरान नाजिल हुई थी. इस दौरान मुसलमानों पर लगातार हमले हो रहे थे. सूरह तौबा की अगली 9:6 में कहा गया है, "अगर कोई तुमसे पनाह (शरण) मांगे तो उसे पनाह दो और तब तक सुरक्षित रखो जब तक वह अल्लाह का कलाम न सुन ले." इसी तरह कुरान की सूरह माएदा, आयन 5:32 कहा गया है, "जिसने किसी बेगुनाह (निर्दोष) का कत्ल किया, उसने पूरी इंसानियत का कत्ल किया."
देश और दुनिया में इस्लाम के खिलाफ नफरत फैलाने की कोशिशें लगातार हो रही हैं. कुछ दक्षिणपंथी राजनीतिक संगठन या नेता सत्ता की लालच में इस्लाम को एक हिंसक धर्म बताकर हिंदू-मुस्लिम समाज के बीच खाई गहरी पैदा करने की कोशिश करते हैं. सोशल मीडिया पर भी "काफिरों को मारने से जन्नत मिलती है" जैसी झूठी और भ्रामक बातों को बिना किसी तर्क और हवाले के वायरल किया जाता है.
इतिहास की कुछ घटनाओं, जैसे कि कुछ मुस्लिम शासकों के जरिये मंदिरों को तोड़ने या जजिया कर लागू करने, को सीधे इस्लाम से जोड़ दिया गया, जबकि ये ज्यादातर राजनीतिक या आर्थिक फायदा हासिल करने के लिए गए फैसले थे, न कि कुरान या हदीस से निर्देशित धार्मिक आदेश.
विदेशी प्रभाव भी इस्लाम के प्रति नकारात्मक धारणा फैलाने में भूमिका निभा रहे हैं. डच नेता गीर्ट विल्डर्स जैसे अंतरराष्ट्रीय इस्लाम-विरोधी बयानों का असर भारत में भी सोशल मीडिया के जरिए देखा जाता है, जिससे सामाजिक सौहार्द प्रभावित होता है. इसके अलावा कई फ्रीडम ऑफ स्पीच और महिला आजादी के नाम पर इस्लाम को निशाना बनाया जा रहा है.
इस्लाम किसी भी धर्म, जाति या रंग के आधार पर भेदभाव नहीं करता. यह अमन, इंसाफ और रहमत का पैगाम देता है. 'काफिर' जैसे शब्दों का भी गलत इस्तेमाल कर इस्लाम को बदनाम करना पूरी तरह नाइंसाफी है. अल्लाह के रसूल हजरत मोहम्मद (स.अ.व.) ने हमेशा हर मजहब और हर इंसान के साथ मोहब्बत, इंसानियत और इंसाफ का व्यवहार किया और यही इस्लाम की असली पहचान है.