पटना हाई कोर्ट से नीतीश सरकार को झटका, आरक्षण की सीमा 65% करने का फैसला रद्द
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पटना हाई कोर्ट से नीतीश सरकार को झटका, आरक्षण की सीमा 65% करने का फैसला रद्द

पटना हाई कोर्ट ने बिहार में आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 65 प्रतिशत करने के फैसले को संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 का उल्लंघन बताते हुए रद्द कर दिया. मुख्य न्यायाधीश के. विनोद चंद्रन की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कई याचिकाओं पर सुनवाई के बाद इस मामले में फैसला सुनाया.

पटना हाई कोर्ट से नीतीश सरकार को झटका, आरक्षण की सीमा 65% करने का फैसला रद्द

नई दिल्लीः पटना हाई कोर्ट ने बिहार सरकार को झटका दिया है. अदालत ने राज्य में पिछले वर्ष दलितों, पिछड़े वर्गों और आदिवासियों के लिए सरकारी नौकरियों तथा शिक्षण संस्थानों में आरक्षण 50 फीसदी से बढ़ाकर 65 फीसदी किए जाने के फैसले को गुरुवार को रद्द कर दिया.

  1. याचिका में कानूनों का विरोध किया गया था
  2. हाई कोर्ट ने संविधान का उल्लंघन बताया

याचिका में कानूनों का विरोध किया गया था

पटना हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के. विनोद चंद्रन की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कई याचिकाओं पर सुनवाई के बाद यह आदेश पारित किया है. इन याचिकाओं में नवंबर 2023 में राज्य की नीतीश कुमार सरकार की ओर से लाए गए कानूनों का विरोध किया गया था. याचिकाकर्ताओं के वकीलों में से एक रितिका रानी ने कहा, 'हमारा तर्क था कि आरक्षण कानूनों में किए गए संशोधन संविधान का उल्लंघन थे.'

मार्च में सुरक्षित रखा गया था फैसला

उन्होंने न्यूज एजेंसी पीटीआई-भाषा को बताया, 'दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद अदालत ने मार्च में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था. आज फैसला आ गया और हमारी याचिकाएं स्वीकार की गईं.' दरअसल नीतीश कुमार सरकार ने 21 नवंबर 2023 को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में वंचित जातियों के लिए आरक्षण की सीमा को 50 से बढ़ाकर 65 फीसदी करने की सरकारी अधिसूचना जारी की थी. 

कोर्ट ने संविधान का उल्लंघन बताया

पटना हाई कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 का उल्लंघन बताते हुए आरक्षण बढ़ाने के निर्णय को रद्द कर दिया है. माना जा रहा है कि बिहार सरकार हाई कोर्ट के फैसले को सर्वोच्च अदालत में चुनौती दे सकती है.

बता दें कि नीतीश कुमार केंद्र सरकार से बिहार आरक्षण कानून को संविधान की 9वीं अनुसूची में डालने की मांग कर रहे हैं. इसकी वजह यह है कि 9वीं अनुसूची में आने वाले कानूनों की सामान्यतः न्यायिक समीक्षा नहीं होती है लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि 9वीं अनुसूची में डाले जाने के बाद भी किसी कानून को अपनी समीक्षा के दायरे में बता रखा है.

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