Islamic Facts: इस्लाम में मदरसे और मस्जिदों की काफी अहमियत है. लेकिन नॉन- मुस्लिम अक्सर इन दोनों जगहों को लेकर कन्फ्यूज्ड हो जाते हैं. आखिर दोनों में क्या फर्क होता है? आज हम आपको इसके बारे में पूरी जानकारी देंगे, तो आइये जानते हैं.
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Islamic Facts: हिंदुस्तान समेत दुनिया के तमाम मुस्लिम कम्युनिटी में मस्जिद और मदरसों की बेहद ख़ास जगह और अहमियत है. हालांकि आपको मदरसा भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में ज्यादा देखने को मिलेंगे. दोनों जगहें इस्लामी पहचान से जुड़ी होती हैं. कई जगहों पर मदरसे और मस्जिदें एक जगह पर दिखाई देती हैं, लेकिन इन दोनों के कामों, मकसद और इस्तेमाल में काफी फर्क होता है.
मस्जिद एक ऐसी जगह है जहां मुसमलमान नमाज पढ़ते हैं. खासतौर पर मर्दों को पांचों वक्त की फर्ज नमाज मस्जिद में अदा करने की सलाह दी जाती है, जबकि सुन्नत और नफिल नमाज़ें घर में अदा करने को बेहतर माना गया है. मस्जिदें भी कई तरह की होती हैं. वह मस्जिद जहां जुमा की नमाज अदा की की जाती है उसे जामा या जुमा मस्जिद कहा जाता है. जुमे की नमाज़ के दिन रोज़ पढ़ी जाने वाली जोहर की नमाज़ रद्द हो जाती है, और उसकी जगह सामूहिक रूप से जुमे की नमाज़ पढ़ी जाती है. इसलिए जुमे की नमाज़ इलाके के बड़ी या जामा मस्जिद में अदा की जाती है. वहीं एक मस्जिद और होती है, जहां ईद या बकरीद की नमाज अदा की जाती है, उसे ईदगाह कहा जाता है. हालांकि ये तीनो (जुमा, ईद और बकरीद) आम मस्जिदों में भी अदा की जा सकती हैं.
ऐसा देखा जाता जाता है कि मस्जिदों में मुसलमान इकट्ठा होते हैं और कुरान और हदीस का जिक्र करते हैं. मस्जिदों को मुसलमानों को इस्लाम के प्रति बेदार करने के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है. जुमे के दिन जो खुतबा ( संबोधन ) होता है, उसका मकसद ही मुसलमानों में सुधार और बेदारी लाना होता है. उसे धर्म और सच्चाई के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित किया जाता है. जुमे के दिन हफ्ते में एक बार सामूहिक रूप से आपस में मिलने, खुतबा सुनने और नमाज़ पढने का मकसद लोगों में आपसी मेल- जोल बढ़ाना, उनके बीच की दूरी को कम कर सामाजिक चेतना का विकास और सामूहिक प्रयासों से किसी समस्या विशेष का समाधान ढूँढने के लिए उन्हें प्रेरित करना होता है.
मदरसा एक अरबी का शब्द है, जिसका मतलब होता है शिक्षा की जगह. मदरसे धार्मिक शिक्षा देने वाले एजुकेशन इंस्टीट्यूट होते हैं, जहां बच्चों और युवाओं को इस्लामी ज्ञान सिखाया जाता है. हालांकि, अब इनमें हिंदी, इंग्लिश और साइंस आदि जैसे आधुनिक विषय भी पढ़ाया जाने लगा है.
- यहां कुरान शरीफ, हदीस, अरबी भाषा, फिक़्ह (इस्लामी कानून), तफ़सीर (कुरान की व्याख्या) आदि की शिक्षा दी जाती है.
- कई मदरसे बच्चों को सामान्य शिक्षा जैसे हिंदी, अंग्रेजी, गणित आदि भी देते हैं.
- मदरसे पूरी तरह से एजुकेशन इंस्टीट्यूट होते हैं और इनका अहम मकसद मजहबी ज्ञान देना होता है.
- इन्हीं मदरसों में बच्चों की कुरआन कंठस्त करा कर उन्हें हाफ़िज़ बनाया जाता है. कुरआन को याद कर लेने वाले लोगों को हाफिज कहा जाता है. ये लोग रमजान के दिनों में तरावीह की नमाज़ में इसी कुरान को पढ़कर उसकी शिक्षाओं को दोहराते हैं, और लोगों को सुनाते हैं.
- मुस्लिम समाज में मदरसे का महत्व इसलिए भी है, कि इस्लाम में हिन्दू धर्म की तरह पुरोहित का कोई कांसेप्ट नहीं है, यानी यहाँ पूजा- पाठ कराने या धार्मिक अनुष्ठान या कर्मकांड के लिए किसी ख़ास किस्म के पंडित या पुरोहित से काम लेने का कोई कांसेप्ट नहीं है. हर मुस्लमान को दिन में पांच वक़्त की नामज़ पढने की अनिवार्यता होती है. एक आम पढ़ा- लिखा मुसलमान वो सभी काम खुद कर और करा सकता है, जो एक मौलवी या मस्जिद का इमाम करता है.
- मदरसों में इस्लाम की मुफ्त शिक्षा मिलती है. इसलिए यहाँ गरीब और वंचित मुस्लिम परिवारों के बच्चों के लिए मुफ्त में शिक्षा, आवास और भोजन की व्यवस्था हो जाती है. मदरसे एक तरह से समाज के सेफ्टी वाल्व की तरह भी काम करते हैं. जो बच्चे गरीबी और अभाव में स्कूल नहीं जा पाते हैं, उन्हें मदरसों में भेजकर एक साक्षर इंसान बना दिया जाता है.
- अधिकांश मदरसे दान के पैसे पर चलते हैं. ये दान खैरात, जकात और सदके के रूप में मुसलमान मदरसों को देते हैं. हर अमीर और आर्थिक रूप से सक्षम मुसलमान साल में अपने कुल संचित धन का २.5 फीसदी रकम जकात के तौर पर मदरसों को दान करते हैं, जिससे मदरसों का संचालन होता है. कुछ मान्यताप्राप्त मदरसों को सरकार अनुदान भी देती है.
- इस्लामी शिक्षा लेने के लिए हर मुस्लमान मदरसा भी नहीं जाता है. भारत में कुल मुस्लिम आबादी का सिर्फ 4 फीसदी मुसलमान अपने बच्चों को मदरसे में पढवाता है. इसके बावजूद हर मुसलमान कुरआन और नमाज़ पढना जानता है. ऐसा इसलिए संभव होता है कि कुरआन और नमाज़ की शिक्षा मुस्लिम बच्चों को अपने माता- पिता से मिलती है, या फिर कोई हाफिज या मौलवी घर आकर tution पढ़ाकर नमाज़, कुरआन और इस्लाम की बुनियादी शिक्षा दे देता है. यही वजह है कि आम मुसलमान मदरसों और मस्जिदों को लेकर थोडा पजेसिव रहता है. जबकि मजारों को लेकर हर मुसलामन में इस तरह की प्रतिबद्धता नहीं दिखती है.
इससे साफ़ हो जाता है कि मस्जिद और मदरसा दोनों ही इस्लामिक समाज के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं, लेकिन इनका मकसद और काम पूरी तरह अलग है. मस्जिदें जहां रूहानी पाकीज़गी और अल्लाह से जुड़ाव की जगह होती हैं, वहीं मदरसे धार्मिक ज्ञान के केंद्र होते हैं जो भविष्य की पीढ़ियों को इस्लामी शिक्षाओं से जोड़ते हैं.
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