187 लोगों का कातिल कौन? ट्रेन ब्लास्ट के आरोपियों को हुई थी मौत की सजा, अब बरी कैसे हो गए?
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187 लोगों का कातिल कौन? ट्रेन ब्लास्ट के आरोपियों को हुई थी मौत की सजा, अब बरी कैसे हो गए?

प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने कहा है कि न्याय का सबसे बुरा रूप न्याय का दिखावा है. 2006 लोकल ब्लास्ट में अपनों को गंवाने वालों को आज यही महसूस हो रहा होगा, क्योंकि सभी 12 आरोपी बरी हो चुके हैं. 

187 लोगों का कातिल कौन? ट्रेन ब्लास्ट के आरोपियों को हुई थी मौत की सजा, अब बरी कैसे हो गए?

लाभ.. एक ऐसा शब्द है जो खुशी देता है. दुनिया में जितने तरह के लाभ होते हैं वो खुशी देने वाले होते हैं लेकिन एक लाभ ऐसा भी होता है जो समाज के तौर पर हमें-आपको तकलीफ देता है, चोट पहुंचाता है, दर्द देता है. इसे हम, संदेह का लाभ कहते हैं. कानून के शब्दकोष में जब-जब संदेह का लाभ आता है, तब-तब अपराधी छूट जाते हैं. दुनिया में संदेह का लाभ सिर्फ और सिर्फ अपराधियों को मिलता है. आज हम, आपको संदेह के लाभ का नया किस्सा सुनाने वाले हैं. जिसे आप सिर्फ सुनें नहीं बल्कि महसूस भी करें. क्योंकि इस बार संदेह का लाभ उन 12 आरोपियों को मिला है जो 187 बेकसूर लोगों की हत्या के जुर्म में सजा काट रहे थे.

2006 में हुई सीरियल ट्रेन ब्लास्ट

आज बॉम्बे हाईकोर्ट ने 2006 के सीरियल ट्रेन ब्लास्ट के सभी 12 आरोपियों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया. कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष यानी सरकार और उसके वकील आरोप साबित करने में नाकाम रहे हैं. कोर्ट के मुताबिक आरोपियों के खिलाफ जो सबूत मिले वो उन्हें गुनहगार साबित करने के लिए काफी नहीं थे. यानी हमारा सिस्टम पहले तो लोगों को सुरक्षा देने में नाकाम रहा और जब जांच की बारी आई तो जरूरी सबूत जुटाने में भी नाकाम रहा. अब आप समझ गए होंगे कि हमारा सिस्टम अपराधियों को संदेह का लाभ कैसे दिलाता है?

187 लोगों का हत्यारा कौन?

ये कोई छोटी घटना नहीं थी. BOMB BLAST हुआ था. ये एक टारगेटेड अटैक था. ज्यादा से ज्यादा लोगों की जान लेने के लिए मुंबई की भीड़भाड़ वाली लोकल ट्रेन में धमाका किया गया था. ये धमाका जानबूझ कर ऐसे वक्त में किया गया था जब भीड़ ज्यादा होती है. इस ब्लास्ट में 187 बेकसूर लोग मारे गए थे. 824 लोग घायल हुए थे. इनके परिवारों को हमारे देश के सिस्टम पर यकीन था. उन्हें उम्मीद थी कि जितने गुनहगार हैं, उन्हें सजा मिलेगी, लेकिन जब इन्होंने सुना होगा कि सभी 12 आरोपी बरी कर दिए गए तो वो अब जश्न की ईद मनाएंगे. तो सोचिए इनके दिल पर क्या बीती होगी? उन 187 लोगों का हत्यारा कोई तो होगा? ये 12 नहीं तो फिर कौन? कम से कम मारे गए लोगों के परिवारों को इन सवालों का जवाब तो मिलना ही चाहिए.

मौत की सजा वाले बरी कैसे हो गए?

आप इस विश्लेषण को एक खबर की तरह मत पढ़िए, आप ये सोचकर मत पढ़िए कि ये मुंबई की खबर है या 19 साल पहले का मामला है. हमें महसूस करना होगा कि वो 187 लोग जो मारे गए थे, ये हमारे-आपके जैसे परिवार से ही थे. हर शाम की तरह दफ्तर से अपने घर लौट रहे थे. लोकल ट्रेन इनकी लाइफलाइन थी लेकिन बम ब्लास्ट ने इनकी लाइफ हमेशा-हमेशा के लिए छीन ली. कोई तो गुनहगार होगा इनका? और सबसे बड़ा सवाल कि जिन आरोपियों को एक कोर्ट ने गुनहगार बताया उन्हें दूसरी अदालत ने बरी कैसे कर दिया? जिन्हें मौत की सजा मिली थी वो बरी कैसे हो गए? हमारा ये सवाल अदालत के फैसले पर नहीं है, सवाल सिस्टम पर है. सवाल उस व्यवस्था पर है जो कोर्ट में जरूरी सबूत तक जुटा नहीं पाई. आज आपको उन पीड़ितों का दर्द भी महसूस करना चाहिए जिन्होंने उस बम ब्लास्ट में अपनों को खोया है.

19 साल से इंसाफ की लड़ाई लड़ रहा परिवार

रमेश नाइक की 27 साल की बेटी नंदिनी 11 जुलाई 2006 को बोरीवली स्टेशन पर हुए धमाके में मारी गई थी. 19 साल से इंसाफ की लड़ाई लड़ रहा परिवार आज टूट गया. कैमरे के सामने फफक-फफक कर रोने लगा. ये दर्द सिर्फ एक परिवार का नहीं है. ये पीड़ा 187 परिवारों की है. ये पीड़ा देश में आतंकी घटना से पीड़ित हर परिवार की है.

मुंबई ट्रेन ब्लास्ट के आरोपियों के नाम

अब हम आपको संदेह के 12 लाभार्थियों का नाम बताते हैं, जिन्हें 2006 में पकड़ा गया था और 11 सितंबर 2015 को स्पेशल कोर्ट ने सजा सुनाई थी. कमाल अंसारी, मोहम्मद फैजल शेख, एहतेशाम सिद्दीकी, नावीद खान, आसिफ खान इन 5 आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई गई थी और तनवीर अहमद अंसारी, मोहम्मद माजिद, शेख मोहम्मद, साजिद अंसारी, मुजम्मिल शेख, सुहैल शेख और जमीर शेख इन 7 आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी.

सिस्टम की लापरवाही?

सोचिए जो आरोपी स्पेशल कोर्ट में दोषी साबित हुए थे वो हाईकोर्ट में कैसे बच गए. साफ है ये सिस्टम की लापरवाही है. इसे समझने के लिए इन आरोपियों को राहत देते हुए हाईकोर्ट ने जो कहा है उसे समझना होगा. हाईकोर्ट ने आरोपियों को राहत देते हुए कहा कि सूबत, गवाहों के बयान और आरोपियों से जो कुछ बरामद किया गया वो उन्हें दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं हैं.

सही तरीके से नहीं हुई जांच?

साधारण शब्दों में कहें तो कोर्ट के मुताबिक केस की जांच सही तरीके से नहीं की गई. सबूत सही तरीके से नहीं जुटाए गए. यहां सवाल जांच एजेंसियों पर है. कोर्ट ने कहा कि बम बनाने के लिए जो विस्फोटक इस्तेमाल हुए, सबूत के तौर पर उन्हें ठीक से नहीं रखा गया. पैकेट की सीलिंग भी खराब थी. कोर्ट ने कहा है कि अभियोजन पक्ष अपराध में इस्तेमाल किए गए बमों के प्रकार को भी रिकॉर्ड में लाने में नाकाम रहा. यानी कोर्ट में एजेंसियां ये बताने में भी नाकाम रहीं कि धमाके में किस तरह के बम और विस्फोटक इस्तेमाल किए गए थे.

ATS पर थी इंसाफ दिलाने की जिम्मेदारी

इस केस की जांच महाराष्ट्र एंटी टेरेरिज्म स्क्वॉड ने की थी. महाराष्ट्र ATS पर ही आरोपियों को सजा दिलाने की जिम्मेदारी थी. ATS पर ही पीड़ितों को इंसाफ दिलाने की जिम्मेदारी थी लेकिन ऐसा क्यों हुआ कि 2015 में जिन आरोपियों को स्पेशल कोर्ट ने दोषी ठहराया था आखिर वो 2025 में हाईकोर्ट से कैसे छूट गए? आज सिस्टम से इस सवाल का जबाव हर इंसाफ पसंद व्यक्ति चाहता है.

न्याय का सबसे बुरा रूप न्याय का दिखावा

प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने कहा है कि न्याय का सबसे बुरा रूप न्याय का दिखावा है. 2006 लोकल ब्लास्ट में अपनों को गंवाने वालों को आज यही महसूस हो रहा होगा. पीड़ितों के घाव को कुरेदने वाली और उनकी पीड़ा को बढ़ाने वाली तस्वीरें देखकर आपको भी यही महसूस हो रहा होगा लेकिन कुछ लोगों को खुशी हो रही है. वो आज खुश हैं और इस खुशी में एक नया नैरेटिव गढ़ रहे हैं. ये वो लोग हैं जो अपराध को भी एक खास चश्मे से देखते हैं. जिन आरोपियों को 2015 में कोर्ट ने दोषी ठहराया था. आज उनके बरी होने पर ये खास वैचारिक चश्मे वाले लोग नया नैरेटिव चला रहे हैं. बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले के बाद अब ये फैलाया जा रहा है कि आरोपियों को फंसाया गया, एजेंसियों ने उनके खिलाफ साजिश की.

धर्म देखकर निर्दोष होने की दलील 

कहा जा रहा है कि धर्म का सहारा लेकर एजेंसियों को दोषी ठहराने और खुद को बेकसूर बताने का नैरेटिव खड़ा किया जा रहा है. इस सोच के बारे में सोचिए. ये कैसी सोच है जो अपराधी का धर्म देखकर उसके निर्दोष होने की दलील देती है. ये नैरेटिव गढ़ने वालों को आज ये भी बताना चाहिए कि स्पेशल कोर्ट ने आरोपियों को दोषी क्यों माना था.

पहले भी हो चुका है इसी तरह

सोचिए जिन 187 परिवारों ने बम धमाके में अपनों को खो दिया. उनपर क्या गुजर रही होगी. सिस्टम की लापरवाही से आरोपी रिहा हो गए. अब उन्हें निर्दोष बताने वाला नैरेटिव भी चलाया जा रहा है. फिर यही सवाल है कि आखिर 187 लोगों की हत्या का जिम्मेदार कौन है? किसने 7 लोकल ट्रेन में 7 धमाके किए? ऐसे गंभीर मामले में आरोपियों को संदेह का लाभ देकर छोड़ देना ये कोई पहली बार नहीं हुआ है.

  • वर्ष 1993 सूरत ब्लास्ट के सभी 11 आरोपियों को सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया था. टाडा कोर्ट ने इन आरोपियों को 10 से 20 साल तक की सजा सुनाई थी.

  • महाराष्ट्र के नांदेड में 2006 में हुए धमाके के जीवित 9 आरोपियों को कोर्ट ने बरी कर दिया था.

  • 13 मई 2008 को जयपुर में सीरियल बम धमाके के बाद जिंदा बम मिलने के मामले में दोषी ठहराए गए आरोपियों को बाद में बरी कर दिया गया.

सबूत के आधार पर फैसला सुनाती है. सबूत पेश करना जांच एजेंसी का कर्तव्य है. इसलिए जहां भी आरोपी सबूत के आभाव में छूटते हैं, सवाल जांच एजेंसी और सिस्टम पर उठता है. मुंबई लोकल धमाके के आरोपी बॉम्बे हाईकोर्ट से बरी हो गए हैं. अब पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के लिए इस केस को सुप्रीम कोर्ट ले जाने की मांग हो रही है. तो एक खास नैरेटिव वाले लोग भी हैं जो अब 2015 में दोषी ठहराए गए आरोपियों की मदद के लिए आगे आ रहे हैं.

हत्यारे कोर्ट से छूट जाते हैं?

मुंबई लोकल सीरियल ब्लास्ट में आरोपियों का छूटना सिर्फ मुंबई और 187 परिवारों के दर्द की कहानी नहीं है. ये सिस्टम की लापरवाही का साक्ष्य है. ये सबूत है कि सिस्टम के लिए ऐसी घटनाओं में जान गंवाने वाले सिर्फ एक अंक होते हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो आज रमेश नाइक की आंखों में खुशी के आंसू होते. आज उन्हें खुशी होती कि बेटी के हत्यारों को सजा मिली है. अफसोस है कि ऐसा नहीं हुआ है. इसलिए आज आप भी इस पीड़ा को महसूस कीजिए और सोचिए की लापरवाह सिस्टम पीड़ितों को कैसा दर्द देता है. सवाल पूछिए कि आखिर ये लापरवाही क्यों होती है और क्यों हत्यारे कोर्ट से छूट जाते हैं?

सुप्रीम कोर्ट में जाएगा केस

हालांकि सरकार बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जा रही है. यानी जांच एजेंसी के पास सबूत जुटाने का एक और मौका है, जिससे मुंबई लोकल ब्लास्ट के गुनहगारों को सजा दिलाई जा सके.

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