Toffee news: आप हों या आपके बच्चे, पड़ोसी या कोई और बचपन में सबने टॉफी तो जरूर खाई होगी. हो सकता है कि उस समय कोई ऐसी टॉफी रही हो जिसके स्वाद ने आपको दीवाना बना दिया हो कि कैसे जेब या हाथ में चार पैसे/ चार आने आ जाएं तो सीधे टॉफी खरीदने जाएं. पुराने जमाने में तो रिश्तेदार भी जाते समय घर के छोटे बच्चों के हाथ में पांच-दस रुपये रखकर कहते थे लो बेटा या लो बेटी टॉफी खा लेना. यानी एक जमाना ऐसा भी था जब टॉफी के बिना बचपन की कल्पना नहीं हो सकती थी. तभी किसी टॉफी का विज्ञापन होता था - 'जी ललचाए, रहा ना जाए'... बच्चे तो बच्चे और बाप रे बाप बड़े सभी के पॉकेट, जेब या बैग और घर की डाइनिंग टेबल पर आज भी टॉफी दिख जाना आम बात होती थी. खैर समय कभी एक जैसा नहीं रहता. कोरोना काल और डिजिटल यूपीआई पेमेंट के इस युग में टॉफी दिखनी बंद तो नहीं हुई लेकिन कम जरूर हो गई है. टॉफी की इस भूमिका के बीच क्या आप जानते हैं कि टॉफी का अविष्कार किसने किया, दुनिया की पहली टॉफी कहां बनीं, अगर नहीं तो आइए आपको बताते हैं टॉफी का इतिहास.
कैंडी (टॉफी) हर किसी ने खाई होगी. उसका मीठा फ्लेवर्ड, चटपटा स्वाद मुंह में पानी ला देता है. टॉफी का इतिहास बहुत पुराना है. दुनिया में शायद ही कोई देश ऐसा हो जिसके बाजार में कभी न कभी टॉफी का जलवा न रहा हो. आज तो बाजार में कई तरह की कैंडी उपलब्ध हैं. किसी का स्वाद खट्टा तो किसी का स्वाद मीठा होता है. लेकिन क्या आप दुनिया की सबसे पहली टॉफी का अविष्कार कैसे हुआ?
टॉफी एक अंग्रेज़ी मिठाई है जिसे चीनी या गुड़ को मक्खन और कभी-कभी मैदे के साथ मिलाकर कैरामेलाइज करके बनाया जाता है. टॉफी नाम के इस महान अविष्कार यानी ईजाद/ खोज को लेकर दुनियाभर के विद्धानों में मतभेद हैं. हांलाकि ज्यादातर फूड हिस्टोरियन खासकर टॉफी लवर्स इस बात से सहमत हैं कि इस कथित बहुत छोटी मिठाई 19वीं सदी की शुरुआत में ब्रिटेन यानी अंग्रेजों के देश इंग्लैंड जिसे आज यूके (UK) के नाम से भी जानते हैं, वहां पर पॉपुलर हुई. उस समय इसे ब्रिटेन से कई दूसरे यूरोपीय देशों को निर्यात किया जाता था. टॉफी के जन्म के इतिहास के समय से ही इन्ग्रीडिएंट्स में मक्खन और मीठे की प्रचुर आपूर्ति के कारण वो बड़ों से लेकर बच्चों तक सबकी फेवरेट बन गई. कुछ लोग कहते हैं कि टॉफी बनाने की आविष्कार कज़ाकिस्तान में हुआ था तो कई भारतीय इस दावे का खंडन करते हैं. बहुत से लोगों का मानना है कि टॉफी पश्चिम भारत का एक शब्द है. इस थ्यूरी पर विश्वास करने वालों का मानना है कि टॉफी की उत्पत्ति भारत से हुई होगी.
टॉफी को लेकर दुनियाभर में कई सर्वे हुए लेकिन सबसे ज्यादा मार्क्स इंग्लैड को मिले और इस थ्योरी के हिसाब से टॉफी की इजाद यानी पहली टॉफी का प्रोडक्शन ब्रिटेन में हुआ होगा. आमतौर पर माना जाता है कि टॉफी की उत्पत्ति 19वीं सदी में इंग्लैंड में हुई. टॉफी एक प्रकार का मिष्ठान है जो चीनी या गुड़ को मक्खन और कभी-कभी आटे के साथ मिलाकर बनाया जाता है. टॉफी का विशिष्ट आकार और अविष्कार ब्रिटिश पाक प्रथाओं का परिणाम माना जाता है. ब्रिटेन के लोगों के पास टॉफी से जुड़े कई शब्द हैं जिनकी दुनियाभर में चर्चा है. एक घमंडी अभिजात वर्ग को टॉफ़ी-नोज़्ड कहा जा सकता है.
भारत में आज भी लाखों बच्चों का पहला प्यार उनकी पहली पसंदीदा टाफी/कैंडी है. भारत का कैंडी बाजार 7,500 करोड़ रुपये का है. जिसमें पारले, ITC और DS फूड्स जैसी कैंडी बनाने वाली भारतीय कंपनियां विदेशी टाफी बनाने वाली मल्टीनैशनल कंपनियों को कड़ी टक्कर दे रही हैं. नील्सन के डेटा के मुताबिक परफेटी वैन मेल, मॉन्डलेज और नेसल जैसी ग्लोबल कंपनियों की पिछले बीते कुछ सालों में मार्केट में हिस्सेदारी या तो स्थिर रही या उसमें कमी आई है. इसका कारण इन कंपनियों के प्रॉडक्ट्स के अधिक दाम हैं. नोटबंदी और कोरोना महामारी के चलते कैंडी इंडस्ट्री को बहुत नुकसान हुआ. दरअसल टॉफी बाजार/कैंडी मार्केट में प्राइस और टेस्ट पर सबसे पहले ध्यान दिया जाता है. अगर किसी टॉफी का दाम 50 पैसे की बढ़ाकर एक रुपया कर दिया जाए तो भी उसकी सेल पर असर पड़ जाता है. पिछले कुछ सालों में मॉन्डलेज इंडिया ने हॉल्स को पहले के 50 पैसे की जगह 1 रुपये में दोबारा लॉन्च किया. वहीं चॉकलेयर्स के दाम दोगुने हो कर 2 रुपये हो गया तो परफेटी वैन मेल ने एल्पेनलीबे जैसी अपनी अधिकतर कैंडी को 1 रुपये के प्राइस पर लॉन्च किया. चुनौती चाहे जैसे भी रही हो भारतीय कंपनी पारले प्रॉडक्ट्स ने अपने प्रॉडक्ट्स खासकर टॉफी-कैंड के दाम नहीं बदले ये देर से बदले या दाम में मामूली इजाफा किया. वहीं Pulse candy-2015 में लॉन्च हुई थी इस टॉफी ने तो 2024-25 में एक बड़ा मुकाम हासिल करते हुए 750 करोड़ रुपये की कंज्यूमर सेल दर्ज की थी.
1825 के बाद ‘टॉफी’ शब्द का जिक्र डिक्शनरी में होने लगा. ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में तब यह शब्द पहली बार दिखा था, हालांकि इसे 1817 में Taffy का बिगड़ा नाम समझा गया. आपको बताते चलें कि Toffee और इसके बिगड़े नाम Taffy दोनों अलग-अलग चीज होती हैं. कुछ इतिहासकारों के मुताबित टॉफी बनाने का चलन ब्रिटेन के वेल्स से शुरू हुआ जो जल्द ही पूरे यूरोप में फैल गया. वहीं कुछ इतिहासकार दावा करते हैं कि मिस्र में इसका चलन शुरू हुआ. लेकिन टॉफी किसने पहली बार बनाई, इसका कहीं कोई अता-पता नहीं है.
दुनियाभर में जैसे बहुत सी चीजों जैसे हथियारों में अमेरिका और रूस का कंपटीशन आज तक चल रहा है वैसे ही टॉफी की बात करें तो यहां इंग्लिश टॉफी (इंग्लैंड) और अमेरिकन टॉफी में कांटे की टक्कर रह चुकी है. सबके अपने अपने चाहने वाले हैं. हालांकि इन दोनों में भी फर्क है. ब्रिटेन वाली इंग्लिश टॉफी को बटर क्रंच (Buttercrunch) कहा जाता है जो टॉफियां बिना ड्राईफ्रूट्स के बनती थी. वहीं, अमेरिकन टॉफी में काजू-बादाम जैसे नट्स डाले जाते है. टॉफी (Toffee) के बाद अब बात टैफी (Taffy) की. एक जैसे शब्दों की तरह टॉफी और टैफी भी भाई-बहन की तरह हैं. मैंगो फ्लेवर वाली टॉफी को मैंगो बाइट कहें या फिर पान फ्लेवर वाली पसंद, खट्टी वाली स्वाद हो या पॉपिन्स और हाजमोला कैंडी इन तमाम कैंडीज में से कोई न कोई तो आपने भी जरूर खाई होंगी.
टॉफी की मुंहबोली बहन कैंडी की बात करें तो कैंडी सिर्फ चीनी और कुछ फ्लेवर्स डालकर बन जाती है. आप इसे घर पर भी बना सकते हैं. दरअसल टॉफी भले ही सख्त हो लेकिन मुंह में डालने के बाद सॉफ्ट होने लगती है लेकिन कैंडी सख्त जरूर होती है लेकिन जैसे ही हम मुंह में डालकर चूसते हैं, वह धीरे-धीरे घुलने लगती है. कैंडी अंग्रेजी भाषा का शब्द है लेकिन इसे पुराने फ्रेंच शब्द çucre candi से उठाया गया. कहीं ये अरबी कंडी (Qandi) को कहीं फारसी कंड (Qand) कही जाती है. इन सभी शब्दों का मतलब चीनी से बनी मीठी गोली होता है.
20वीं सदी के शुरुआती सालों से लेकर 21वीं सदी आने के बाद के दशकों तक टॉफी बच्चों के बचपन का अहम हिस्सा होती थी. बच्चे अगर दूध या कोई और सामान लेने जाते तो दुकानदार 'छुट्टा नहीं है, कहकर उन्हें टॉफी पकड़ा देता था. 1947 में दूध (फुल क्रीम) की कीमत 12 पैसे प्रति लीटर थी उस समय के हाल का तो नहीं पता लेकिन 2018 के आसपास जब दूध की कीमत 52 रुपये प्रति लीटर हुई तो तब भी आधा लीटर का पैकेट लेने पर दुकानदार छुट्टे न होने का बहाना करके एक या दो रुपये की टॉफी पकड़ा देते थे. यूपीआई का जमाना आया तो विज्ञापन कुछ इस तरह हुआ- गोली (टॉफी) देना बंद करो बस एक टैप में डन करो... आज करोड़ों लोग स्कैन करके ऑनलाइन पेमेंट करते हैं जिसका नतीजा ये हुआ छुट्टे के बदले टॉफियां देने का चलन खत्म होने के कगार पर है. टॉफी इंडस्ट्री में काफी मंदी आई है. दरअसल टॉफी और कैंडी की बिक्री में 1990 के दशक तक 7% की गिरावट देखी गई जो 2000 के दशक के बीच लगभग 3 प्रतिशत रह गई. आजकल के मां-बाप दांत खराब होने के डर से अपने बच्चों को टॉफी या कैंडी से दूर ही रखते हैं.
कुछ विदेशी लेखकों का मानना है कि भारत में मिठाइयों की परंपरा अनादिकाल से रही है. ऐसे में मीठी टॉफी या कैंडी बनाने की शुरुआत भारत में हुई. ऐसा ही दावा कुछ इतिहासकारों का भी रहा है. इसके पीछे का आधार ये बताया जाता है कि भारत में गन्ने की खेती युगों-युगों से हो रही है. पूजा-पाठ में भी गन्ने का इस्तेमाल होता है. शंकर जी को गन्ने का रस चढ़ता है. आगे चलकर ऐसा हुआ होगा कि लोग इसके जूस को उबालकर मीठे के रूप में चीनी बनाते थे जो सख्त होती है. यही कैंडी का प्रारंभिक रूप था. कुछ देश उन दिनों मीठे के लिए शहद का इस्तेमाल करते. मिस्र में शहद में खजूर और मेवे डाले जाते और यूनान में शहद में फल, फूल और बैरीज डाली जाती थीं. लेकिन क्रिस्टल की तरह पारदर्शी सफेद चीनी उनके लिए एक नायाब चीज थी. कुछ मिलाकर बच्चे हर देश में होते हैं उनका मन बहलाने या ध्यान बटाने के लिए इसे हर देश में इसके टेस्ट और सस्ती होने की वजह से हाथोंहाथ लिया गया.
कहा जाता है कि आगे चलकर भारत में बनी टॉफी चीन के रूट से होते हुए दुनियाभर में पहुंची और यूरोप तक बिकने लगी. जहां अंग्रेज उस समय इसे 'इंडियन सॉल्ट' कहते थे. तब चीजों का आयात काफी महंगा होता था इसलिए बाहर के देश चीनी के क्रिस्टल क्यूब को लग्जरी आइटम मानते थे. आपको बताते चलें कि ये वह दौर रहा होगा जब भारत में बताशे बनने लगे. बाद में अंग्रेजों ने इसमें फ्लेवर मिलाकर दुनिया के टॉफी बाजार पर अपना कब्जा कर लिया.
इस हिसाब से देखें तो भारत की पहली कैडी बताशा थी जिसका इस्तेमाल सैकड़ों साल से पूजापाठ में हो रहा है. पुराने समय में जब बिस्किट का अविष्कार नहीं हुआ था तो घर में जब मेहमान या रिश्तेदार आते थे तो उसे पानी के साथ मिठाई के रूप में बताशा या गुड़ ही दिया जाता था. बाद में जब बिजनेस के लिए दुनियाभर के रूट बने तो बताशा (गट्टा-खिलौने) कई देशों में पहुंचने लगे. खैर भारत की देसी और शायद दुनिया की पहली कथित कैंडी का एक दिलचस्प किस्सा मुगलकाल से भी जुड़ता है. कहा जाता है कि जहांगीर ने नूरजहां को पहली बार मीना बाजार में देखा था. उस समय नूरजहां के मुंह में दुनिया की पहली कैंडी बताशा थी. हालांकि Zee News इसकी पुष्टि नहीं करता है. पूरब में बंगाल से लेकर उत्तर तक यूपी और हिंदी-बेल्ट में पूजापाठ में बताशा ही इस्तेमाल होत है. जैसे दिवाली के समय भी लैया-गट्टा खील- खिलौनो के साथ बड़े-बड़े बताशों को भी पूजा में रखा जाता हैं. कहा तो ये भी जाता है कि 1760 में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत से कुछ समय पहले कैंडी का इस्तेमाल दवा के रूप में किया जाता. चीनी के रस में कुछ खास जड़ी-बूटियां/मसाले डाले जाते जो जुखाम-बुखार से लेकर हाजमा दुरुस्त बनाते थे. जैसे होमियोपैथिक जवाओं में भी छोटी-छोटी मीठी सफेद गोलियों का यूज आज भी होता है, जिनके ऊपर मदर टिंचर डालकर मर्ज का इलाज किया जाता है.
ट्रेन्डिंग फोटोज़