Bihar Muslim MLA: बिहार एक ऐसा राज्य है जहां राजनीतिक पंडित भी भविष्य का अनुमान लगाने में गच्चा खा जाते हैं. आज तक कोई भी यह पता नहीं लगा पाया है कि जातिगत बेड़ियों में बंधे लोगों के मन में क्या चल रहा है. इसका सीधा असर बिहार विधानसभा चुनाव में देखने को मिलता है. चुनाव खत्म होने के बाद जातियों के समीकरण पर बात की जाति हैं. इसमें सबसे बड़ा सवाल यह होता है कि किस जाति के कितने लोग विधानसभा पहुंचे हैं. वहीं, मुसलमानों के मन में भी होता है कि चुनाव में कितने मुसलमान जीते हैं. ऐसे में आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि आजादी के बाद हुए पहले चुनाव से लेकर अब तक बिहार राज्य में कितने मुस्लिम विधायक जीते हैं और मुस्लिम प्रतिनिधित्व धीरे-धीरे खत्म होने की कगार पर पहुंचने का क्या कारण है.
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Bihar Muslim MLA: बिहार का सियासी रंग हर इलेक्शन में बदलता रहता है. इस राज्य में ज़्यादातर वोट जाति के आधार पर पड़ते हैं और लोग हमेशा अपनी ही जाति के उम्मीदवारों को वोट देते आए हैं. लोगों को इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उम्मीदवार कोई खूंखार अपराधी है या कोई शरीफ़ आदमी. हर चुनाव के बाद राजनीतिक पंडित इस बात का विश्लेषण करते हैं कि किस जाति के कितने उम्मीदवार जीते हैं. ख़ासकर ग्रामीणों और मुसलमानों के मन में यह सवाल रहता है कि बिहार में 18 फीसद से ज़्यादा मतदाता होने के बावजूद उनके समुदाय के उम्मीदवार दूसरी जातियों के उम्मीदवारों के मुक़ाबले कम जीत रहे हैं.
AIMIM के नेता हमेशा यादव और दूसरे जातियों पर सवाल उठाते हैं और कहते हैं कि मुसलमानों की उपेक्षा की जाति हैं. AIMIM के लोग सीधे तौर पर लालू यादव की पार्टी आरजेडी और सेक्यूलर पार्टियों पर निशाना साधते हैं. इसके पीछे AIMIM का तर्क है कि बिहार में यादव 15 फीसद हैं, यानी वे मुसलमानों से 3 फीसद कम हैं, फिर भी मुसलमान उतनी संख्या में विधानसभा या लोकसभा नहीं पहुंच पाते जितनी संख्या में यादव जाति के लोग विधानसभा और लोकसभा पहुंचते हैं.
विधानसभा चुनाव में कितने मुस्लिम उम्मीदवार जीत पाते हैं, यह सवाल हमेशा बना रहता है. ऐसे में कभी कांग्रेस की छत्रछाया में, तो कभी लालू के 'सामाजिक न्याय' के रथ पर सवार होकर, मुस्लिम चेहरे विधानसभा पहुंचे. लेकिन 2020 के चुनाव में जब असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM ने सीमांचल में कदम रखा, तो पुरानी पार्टियों की नींद उड़ गई है. क्या 1985 की तरह 34 मुस्लिम विधायक जीत सकते हैं? या AIMIM अब इस कमी को पूरा करने की कोशिश कर रही है? ऐसे में आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि आजादी के बाद हुए पहले चुनाव से लेकर अब तक बिहार राज्य में कितने मुस्लिम विधायक जीते हैं और मुस्लिम प्रतिनिधित्व धीरे-धीरे खत्म होने की कगार पर पहुंचने का क्या कारण है. आइए विस्तार से जानते हैं.
बिहार विधानसभा चुनाव 1952
स्वतंत्र भारत के पहले विधानसभा इलेक्शन में बिहार से 24 मुस्लिम विधायक चुने गए. इस समय कुल सीटों की संख्या 325 थी. कांग्रेस का दबदबा था और ज्यादातर मुस्लिम विधायक उसी से चुने गए थे. मुस्लिम प्रतिनिधित्व अच्छा था क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम में मुसलमानों की भूमिका को भी मान्यता मिल रही थी. यह दौर साझा राजनीति की शुरुआत थी.
1957–1969
1957 में 25, 1962 में 21, 1967 में 18 और 1969 में 19 मुस्लिम विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचे. इन चुनावों में भी कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी रही और ज्यादातर मुस्लिम विधायक कांग्रेस से ही थे. हालांकि, कुछ मुस्लिम विधायक विपक्षी दलों जैसे पीएसपी और सोशलिस्ट पार्टी से भी चुने गए थे.
1972–1980
1972 और 1977 के चुनावों में 25 मुस्लिम विधायक चुने गए. 1980 में यह संख्या बढ़कर 28 हो गई. इस दौरान कांग्रेस कमज़ोर हुई, लेकिन मुस्लिम मतदाता उसके साथ बने रहे. लोकदल और जनता पार्टी से भी मुस्लिम विधायक विधानसभा पहुंचे.
सबसे ज़्यादा मुस्लिम विधायक
1985 के इलेक्शन में रिकॉर्ड 34 मुस्लिम विधायक चुने गए, जो अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है. उस समय बिहार में 325 सीटें थीं. कांग्रेस मज़बूत स्थिति में थी और उसने सबसे ज़्यादा मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिए. यह कुल सीटों का लगभग 10 फीसद प्रतिनिधित्व था.
1990 और 1995 का चुनाव
1990 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम विधायकों की संख्या घटकर 20 रह गई, और 1995 में 19 मुस्लिम विधायक जीते. इसी दौरान कांग्रेस का पतन शुरू हुआ और जनता दल का उदय हुआ. मुस्लिम मतदाता अब नए विकल्पों की ओर झुक रहे थे.
2000 का चुनाव
2000 में मुस्लिम विधायकों की संख्या बढ़ी और 29 विधायक चुने गए. इस चुनाव में राजद (लालू प्रसाद यादव की पार्टी) को भारी समर्थन मिला और ज़्यादातर मुस्लिम विधायक उसी से चुने गए. राजद ने खुद को मुस्लिम-यादव गठबंधन वाली पार्टी के रूप में स्थापित किया.
साल 2005 में सत्ता परिवर्तन
2005 में नीतीश कुमार और एनडीए सत्ता में आए, लेकिन मुस्लिम विधायकों की संख्या घटकर 16 रह गई. यह सत्ता परिवर्तन का असर था और एनडीए के घटक दलों ने बहुत कम मुसलमानों को टिकट दिए. राजद कमज़ोर हुआ और मुस्लिम प्रतिनिधित्व कम हुआ.
2010 का चुनाव
2010 में फिर से 19 मुस्लिम विधायक जीते. जेडीयू और बीजेपी गठबंधन सत्ता में था। जेडीयू ने कुछ मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिए, लेकिन कुल प्रतिनिधित्व में ज़्यादा बढ़ोतरी नहीं हुई. एआईएमआईएम जैसी पार्टी का कोई प्रभाव नहीं था.
साल 2015 के चुनाव में मुस्लिम प्रतिनिधित्व
2015 के चुनाव में, जब नीतीश कुमार और लालू यादव ने गठबंधन किया था, तब 24 मुस्लिम विधायक जीते थे. राजद को 11, कांग्रेस को 6 और जदयू को 5 मुस्लिम विधायक मिले. यह पिछले 15 सालों में सबसे अच्छा प्रदर्शन था. महागठबंधन ने मुस्लिम समुदाय को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया.
साल 2020 का विधानसभा चुनाव
बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में मुस्लिम विधायकों की संख्या फिर घटकर 19 रह गई, जो 2010 के बराबर है. इस बार मुस्लिम प्रतिनिधित्व में कुछ नए चेहरे नज़र आए, लेकिन पारंपरिक दलों की पकड़ कमज़ोर होती दिखी. राजद के सबसे ज़्यादा 8 मुस्लिम विधायक जीते, जबकि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने सीमांचल में 5 सीटें जीतकर एक बड़ा राजनीतिक संदेश दिया.
जदयू से हो गया मुसलमानों का मोहभंग
कांग्रेस के सिर्फ़ 4 मुस्लिम विधायक ही जीत पाए. बलरामपुर से भाकपा (माले) के महबूब आलम और चैनपुर से बसपा के आज़म खान ने जीत दर्ज की. जेडीयू और बीजेपी जैसी सत्ताधारी पार्टियों से कोई भी मुस्लिम विधायक नहीं जीत सका, यहां तक कि जेडीयू के इकलौते मुस्लिम मंत्री भी अपनी सीट नहीं बचा पाए. सीमांचल में एआईएमआईएम के आने से कांग्रेस और जेडीयू जैसी पार्टियों की मुस्लिम वोट बैंक पर पकड़ को चुनौती मिली है.
मुसलमानों को भाजपा से क्या है खतरा?
बीजेपी ने हिंदुत्व को अपना चुनावी घोषणापत्र बनाया और राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद को लेकर 1990 के दशक में चुनावी मैदान में कूद गई. बीजेपी की इस घोषणा से मुसलमानों में असुरक्षा की भावना पैदा हुई और बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए मुसलमान एक खास पार्टी की तरफ चले गए. इसी समय बिहार में 1989 में भागलपुर में हुए दंगों से बिहारी मुसलमानों का कांग्रेस से मोह भंग हो चुका था और वो किसी नए ठिकाने की तलाश में थे. तभी गैर कांग्रेसी लालू यादव ने MY समीकरण के बदौलत बिहार में अपनी सत्ता खड़ी कर दी, जिसने अगले 20 साल तक राज किया. साल 2005 में बिहार में सत्ता परिवर्तन हुआ. इस चुनाव में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व लगभग सिमट गया. लालू ने वोट तो मुसलमानों से खूब लिए लेकिन प्रतिनिधत्व के नाम पर उसे सिर्फ छाला गया.
कभी थी नीतीश की आंधी
साल 2005 में नीतीश कुमार की सरकार बनी और नीतीश कुमार ने मुसलमानों को विश्वास में लेकर बिहार में जोर-शोर से काम करना शुरू किया. इसका नतीजा ये हुआ कि मुसलमान जेडीयू की तरफ चले गए और बिहार में आरजेडी को पिछले 4 चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा. हालांकि, नीतीश कुमार के दलबदल से मुसलमान नाराज हो गए और एक बार फिर तेजस्वी यादव की तरफ चले गए हैं. पिछले चुनावों में मुसलमानों ने राजद और सेक्यूलर दलों का खूब साथ दिया है, जिससे बिहार में राजद और कांग्रेस राजनीतिक सांस ले रहे हैं. अब देखना होगा कि आगामी विधानसभा चुनाव में मुसलमानों का रुख क्या रहता है और बिहार में सत्ता परिवर्तन होता है या नहीं.