जिस हिंदू ने पाकिस्तान को सबसे बड़ा गिफ्ट दिया, जिन्ना के मरते ही उसे काफिर बना दिया गया
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जिस हिंदू ने पाकिस्तान को सबसे बड़ा गिफ्ट दिया, जिन्ना के मरते ही उसे काफिर बना दिया गया

Independence Day 2025: 14-15 अगस्त 1947 से पहले और उसके बाद डेढ़ साल तक एक हिंदू पाकिस्तान की आवाज बना रहा. मोहम्मद अली जिन्ना उससे खुश थे. रेडियो पर चर्चा होती थी. लेकिन कुछ लोगों की आंखों की वो किरकिरी था. एक दिन मुस्लिम देशों ने हाथ खड़े कर दिए और जान बचाने के लिए मशहूर हिंदू शायर को लाहौर छोड़ना पड़ा. 

जिस हिंदू ने पाकिस्तान को सबसे बड़ा गिफ्ट दिया, जिन्ना के मरते ही उसे काफिर बना दिया गया

Pakistan Hindu Shayar Jagannath Azad: बहुत-से लोगों को यह जानकर ताज्जुब होगा कि मोहम्मद अल्ली जिन्ना के अनुरोध पर पाकिस्तान का कौमी तराना लाहौर के एक हिंदू शायर जगन्नाथ 'आजाद' ने लिखा था. जिन्ना इस तराने को सुनकर खुश हुए थे. वह चाहते थे कि दुनिया उन्हें जवाहरलाल नेहरू से भी बड़ा सेक्युलर नेता समझे, लेकिन जिन्ना की मौत के बाद और पाकिस्तान की स्थापना के करीब 18 महीने बाद यह कौमी तराना इसलिए बदल दिया गया, क्योंकि किसी 'काफिर' का लिखा तराना 'इस्लामी मुल्क' पाकिस्तान का कौमी तराना नहीं हो सकता. 

मुस्लिम लीग का किसी संघर्ष के दौर से संबंधित कोई इतिहास नहीं था, न उसने आजादी के आंदोलन में हिस्सा लिया. सच्चाई तो यह है कि खुद मुस्लिम लीग को आखिर तक यकीन नहीं था कि एक नए मुल्क के रूप में पाकिस्तान बन ही जाएगा. अगस्त 1947 में जब मोहम्मद अली जिन्ना हिंदुस्तान से पाकिस्तान पहुंचे, तब उन्हें अचानक यह ख्याल आया कि पाकिस्तान का कोई 'नेशनल एंथम' भी तो होना चाहिए. उन्होंने लाहौर रेडियो स्टेशन के अफसरों को बुलाया और उन्हें कहा कि 'नेशनल एंथम' तैयार करना होगा और इसे लिखवाने के लिए किसी हिंदू शायर को तलाश करो. 

मोहम्मद अली जिन्ना खुद तो उर्दू के जानकार नहीं थे, लेकिन यह बात भलीभांति जानते थे कि उर्दू की तरक्की और तामीर में पंजाब के हिंदुओं का भी अच्छा-खासा रोल रहा है. दरअसल, जिन्ना ऐसा इसलिए करना चाहते थे कि दुनिया उन्हें जवाहरलाल नेहरू से भी बड़ा सेक्युलर नेता समझे. 

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8 अगस्त की तारीख आ गई. जिन्ना ने कहा कि अब वक्त नहीं है, 24 घंटे के अंदर कौमी तराना तैयार हो जाना चाहिए. इस पर रेडियो स्टेशन के अफसरों के हाथ-पांव फूल गए, लेकिन 'कायदे आजम' का हुक्म था, तो उसे कबूल करना ही था. किसी उम्दा हिंदू शायर की तलाश शुरू हो गई. पता लगा कि लाहौर में एक काबिल हिंदू शायर है जगन्नाथ 'आजाद'. उर्दू में कोई मुस्लिम विद्वान भी उनका मुकाबला नहीं कर सकता. जगन्नाथ 'आजाद' ने पाकिस्तान का कौमी तराना लिखने का अनुरोध मान लिया. 

अच्छी बात यह थी कि उन्होंने यह पक्का इरादा कर रखा था कि देश के बंटवारे के बाद वह लाहौर में ही रहेंगे, हालांकि बाद में उन्हें भी लाखों हिंदुओं और सिखों की तरह पाकिस्तान छोड़कर भारत आना पड़ा. 

पूरा पाकिस्तान रोमांचित

जिन्ना का हुक्म था कि 14 अगस्त को पाकिस्तान के 'स्थापना दिवस' से पहले कौमी तराना हर हालत में तैयार हो जाना चाहिए. जिन्ना के मुस्लिम सहयोगी और अफसर इस बात से नाखुश थे कि पाकिस्तान का कौमी तराना लिखने के लिए किसी हिंदू शायर को कहा गया है, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं थी कि जिन्ना की बात का विरोध कर सके. जगन्नाथ 'आजाद' के पास सिर्फ पांच दिन का वक्त था. उनकी कलम चली. उन्होंने एक ऐसा तराना लिखा, जो पाकिस्तान का पहला कौमी तराना बननेवाला था. पाकिस्तान रेडियो ने इसे कंपोज किया. इसे जिन्ना को सुनाया गया. इसे सुनकर वह खुश हो गए क्योंकि यह उनकी उम्मीदों पर कहीं ज्यादा खरा था. 

उनकी मंजूरी के बाद इसे कौमी तराना के रूप में पहले 14 अगस्त की आधी रात को रेडियो लाहौर से प्रसारित किया गया. इसे सुनकर पूरा पाकिस्तान रोमांचित हो गया था. फिर 15 अगस्त को भी प्रसारित किया गया. अगले 18 महीनों तक इसे पाकिस्तान के कौमी तराने का दर्जा हासिल रहा. हालांकि बड़े मुस्लिम नेताओं और मुस्लिम शायरों को यह काफी चुभता था. 

जगन्नाथ 'आजाद' को लाहौर के कण-कण से बेपनाह मोहब्बत थी. उन्होंने मन बनाया था कि किसी हालत में भारत नहीं जाएंगे. जिन्ना ने जब यह कहा कि पाकिस्तान में सभी धर्म के लोगों का स्वागत है तो उन्हें काफी राहत मिली थी. वह उन दिनों लाहौर की एक साहित्यिक पत्रिका में नौकरी करते थे. अगले कुछ दिनों में हालात बुरी तरह बिगड़ने लगे. मार-काट शुरू हो गई थी. जगन्नाथ की बेटी पम्मी ने पिता को समर्पित वेबसाइट जगन्नाथ आजाद डॉट इंफो पर लिखा कि सितंबर 1947 आते ही एक-एक दिन काटना मुश्किल हो गया. किसी तरह कुछ मुस्लिम मित्रों ने सुरक्षित रखने की कोशिश की, बाद में उन्हीं मित्रों ने सलाह दी कि उन्हें भारत चले जाना चाहिए. 

भरे मन से कहा अलविदा

जगन्नाथ ने भरे मन से उस जमीन को अलविदा कहा, जहां वह पैदा हुए थे. उन्होंने दिल्ली आकर लाला लाजपत राय भवन के पास बने शरणार्थी कैंप में शरण ली. फिर डेली 'मिलाप' में नौकरी कर ली. फिर कुछ समय बाद जोश मलीहाबादी ने दिल्ली का अपना बड़ा मकान उन्हें दे दिया, क्योंकि उन्हें सरकारी मकान अलॉट हो गया था. जोश मलीहाबादी बाद में पाकिस्तान चले गए थे, जहां उन्हें भारत-विभाजन विरोधी विचारों के कारण सत्ताधारियों ने काफी परेशान किया. 1948 में 'आजाद' सूचना प्रसारण मंत्रालय की उर्दू पत्रिकाओं में असिस्टेंट एडिटर हो गए. बाद में समय के साथ उन्हें काफी तरक्की भी मिली.

उन्होंने बहुत बाद में एक इंटरव्यू में बताया कि पाकिस्तान का नेशनल एंथम उन्होंने ही लिखा था. जगन्नाथ 'आजाद' ने भारत आने के बाद शुरुआती सालों में शायद ही कभी किसी को यह बताया कि उन्होंने पाकिस्तान का पहला राष्ट्रगान लिखा था. उनके बड़े बेटे आदर्श 'आजाद' कहते हैं कि इसके पीछे कई वजहें थीं, हालांकि उनके पाकिस्तानी मित्र बखूबी इसे जानते थे. बाद में 'आजाद' ने अपने एक इंटरव्यू में ही इसका खुलासा किया कि किन हालात में जिन्ना के कहने पर उन्होंने पाकिस्तान का राष्ट्रगान लिखा था. 

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जगन्नाथ का निधन 2004 में हुआ. उन्होंने 70 से ज्यादा पुस्तकें लिखीं. उर्दू साहित्य पर खूब काम किया. कुछ सालों से पाकिस्तान मीडिया में खूब बहस होती रही है कि कौन-सा राष्ट्रगान बेहतर है. पाकिस्तान में अब भी यह बहस चलती है कि 'आजाद' का तराना नेशनल एंथम के तौर पर ज्यादा बेहतर रहता. 

पाक गायकों ने गाया 'आजाद' का तराना

1990 और 2000 के दशक में जब पाकिस्तान में यह पता लगना शुरू हुआ कि उनके देश का पहला राष्ट्रगान जगन्नाथ 'आजाद' ने लिखा था तो कई गायकों ने इसे अपनी आवाज में गाया. फहीम मजहर और युवा गायक सनवर ने इसे अपने-अपने अंदाज में गाया, जो यू-ट्यूब पर है और पाकिस्तान में खूब लोकप्रिय है. इन दोनों को ही पाकिस्तान रेडियो ने भी प्रसारित किया. 

पाकिस्तान का शायद ही कोई टी.वी. चैनल बचा हो, जिस पर जगन्नाथ 'आजाद' के कौमी तराने को लेकर बहस नहीं हुई हो. विषय हमेशा यही होता है कि 'आजाद' का तराना ज्यादा बेहतर या फिर हफीज जालंधरी का? प्रो. जगन्नाथ 'आजाद' बहुत मशहूर शायर थे. लिहाजा, उन्हें लगातार पाकिस्तान, बांग्लादेश, सऊदी अरब आदि देशों में बुलाया जाता था. कहा जा सकता है कि हर शायरी की महफिल में वह वाहवाही लूट ले जाते थे. 

दिलचस्प बात यह है कि हफीज जालंधरी भारत के पंजाब प्रांत के जालंधर के रहने वाले थे, जो देश विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए. इस प्रकार पंजाब में हिंदू-मुस्लिम आबादी की अदला-बदली के साथ शायरों की भी अदला-बदली हो गई. यह भी अपने आप में एक बड़ी अजीबोगरीब बात थी कि जिस शायर ने नए मुल्क का कौमी तराना लिखा था, उसे वह मुल्क छोड़ देना पड़ा. वह मुल्क उसके लिए बेगाना हो गया. बाद में तो वह गाना भी बेगाना हो गया. उस गाने को खारिज कर दिया गया. इसका अर्थ यह हुआ कि इस्लामी मुल्क में किसी काफिर का लिखा हुआ कौमी तराना कबूल नहीं किया जा सकता, चाहे वह कितना ही उम्दा हो.

भारत और बांग्लादेश के राष्ट्रगान की कहानी

हर देश का एक अपना राष्ट्रगान होता है. रवींद्रनाथ ठाकुर का लिखा 'जन-गण-मन' हमारा राष्ट्रगान है और बंकिमचंद्र चटर्जी रचित 'वंदे मातरम्' हमारा राष्ट्रगीत है. सर्वप्रथम 27 दिसंबर 1911 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में 'जन-गण-मन' गाया गया था. 'वंदे मातरम्' गीत जिसे 'जन-गण-मन' के समान दर्जा प्राप्त है, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जन-गण-मन का प्रेरणास्त्रोत था. भारत को आजादी मिलने पर कोई नया गीत लिखवाने की जरूरत नहीं पड़ी. 

चर्चा चली है तो यह भी जान लीजिए कि 1971 में नए देश के रूप में अस्तित्व में आनेवाले बांग्लादेश को भी अपना राष्ट्रगान या राष्ट्रगीत लिखवाने की जरूरत नहीं पड़ी थी. उसने रवींद्रनाथ ठाकुर का लिखा 'आमार सोनार बांग्ला' को राष्ट्रगान के रूप में अपना लिया. 

(बलबीर दत्त की किताब- भारत विभाजन और पाकिस्तान के षड्यंत्र, से साभार)

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अनुराग मिश्र

अनुराग मिश्र ज़ी न्यूज डिजिटल में एसोसिएट न्यूज एडिटर हैं. वह दिसंबर 2023 में ज़ी न्यूज से जुड़े. देश और दुनिया की राजनीतिक खबरों पर अच्छी पकड़ रखते हैं. 18 साल से पत्रकारिता के क्षेत्र में काम कर ...और पढ़ें

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